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Bihar Board Class 2th Hindi important Summary

 

दीर्घ उत्तरीय प्रश्न (15 मार्क्स)
(Note- Board exam में 6 प्रश्न  पूछे जाते है जिसमे सिर्फ 3  का उत्तर देना होता है|)

“गाँव का घर” शीर्षक कविता का सारांश लिखे |
गांव का घर शीर्षक कविता के रचयिता आधुनिक हिंदी के कवि ज्ञानेन्द्रपति हैं। इस कविता में कवी ग्रामीण परिवेश में आये बदलाव जो सकारात्मक नहीं नकारात्मक है को बहुत अच्छे ढंग से वर्णन किया है। कवी कहते है कि गांव का घर बाँ-बल्ले और मिट्टी से बना हुआ होता है। उस घर से हम जुड़े रहते हैं। घर के अंदर आने से पहले चौखट पर ही बड़े-बूढ़े खांसकर आवाज देते थे। बुर्जुगों के खड़ाऊँ की आवाज से सभी सटक जाते थे। चौखट से पहले ही ये अभिभावक खड़े रहते थे वहां कोई पर्दा नहीं था एक अदृश्य परदा ही परदे का काम करता था वे किसी का नाम लिए बिना ही पुकारते थे अभिभवक की अंगुली के इशारे पर ही सारघर नाचता था ,सरे काम-काज होते है शंख के चिन्ह की तरह गांव के घर के चौखट होते थे चौखट के बगल में गेरू से पुती हुई दीवाल होती थी दूधवाले ने कितने दिन दूध दिय उसके निशान लगा दिय जाते है बचपन में कवि ने यह दृश्य देखा था। गांव का वह घर अब अपनी शक्त बदल चूका है। अब लगता है वह अपना गांव है ही नहीं पचायती राज का शासन आया। पांचों की ईमानदारी अब नहीं रहीं। वे पांच परमेश्वर नहीं रहे। गांव की घरों में बिजली बत्ती लगा गयी है बल्ब की रौशनी रहने की जगह बुझी ही रहती है बेटों के दहेज में दूरदर्शन की मांग करते है। लालटेन खूंटी पर लटकी दिखाई देती है। रातें अब उजाले अधिक अँधेरा ही उगलती है। कहीं बहुत दूर चकाचौंध रोशनी में आर्केस्ट्रा वाद्य यंत्र बजते दिखी सुनाई पड़ते हैं। आवाज उन वाघ यंत्रों की टिक से सुनाई नहीं पड़ती उनकी रौशनी भी झिल-मिलती दिखाई पड़ती है। लोकगीत, विरहा, होरी चैता ,आल्हा अब नहीं सुनाई पड़ते।

सर्कस का प्रकाश जो गांव वालों को लव रात्रि में भेजता था अब नहीं  पड़ता है लगता है सर्कस कब का मर चूका है ऐसा लगता है जैसे हाथियों के दाँत गिर गए हों। सर्कस कब का मर चूका है। ऐसा लगता है जैसे हाथियों के दन्त गिर गए हों।एक अनगाया शोर गीत कवि की जन्म भूमि में भटकता है । सब कुछ बदल गया । अब शहर खींचता है अदालतें , अस्पताल बुलाते हैं और गाँव के घर की रीढ़ झुरझुराती है ।

“हार-जीत” शीर्षक कविता का सारांश लिखे |
अशोक वाजपेयी रचित हार-जीत एक गघ-कविता है। यह कविता लिखने की एक अधुनिक विधा है। कवि युद्ध के विषय में हार - जीत पर प्रश्न खड़ा करता है कि आखिर इस युद्ध में हार - जीत किसकी होती है ? कवि कहते हैं कि शासक लोग उत्सव मना रहे हैं । सारे शहर को सजाया जा रहा है । शासकों ने जनता को बता रखा है कि उनकी सेना विजय करके लौटी है । कवि यह बताते हैं कि नागरिकों से ज्यादातर लोगों में किसी को पता नहीं है कि किस युद्ध में उनकी सेना गयी थी । कवी कहते है कि जनता को यह बताया गया है कि उनकी सेना विजयी होकर लौट रही है । किस पर विजय पायी है , कहाँ युद्ध हुआ है , यह युद्ध क्यों हुआ है , कितनी सेना गयी थी , कितनी लौट रही है यह सब कुछ किसी को पता नहीं पर वे उत्सव मना रहे हैं । यह विजय किसकी है सेना की , शासक की , जनता की कोई कुछ नहीं पूछता । वहाँ एक बूढ़ा मशकवाला है सड़क पर छिड़काव लगा रहा है । शासकों पर धूल न पड़े वह कहता है , एक बार फिर हार हो गयी और गाजे - बाजे के साथ जीत नहीं हार लौट रही है । पर उसकी ओर किसी का ध्यान नहीं जाता - यहाँ यह ध्वनि है युद्ध में हार - जीत नहीं होती पर विनाश अवश्य होता है । जनता को काम में लगा दिया जाता है ताकि वह कुछ सोच ही न सके ।

“प्यारे नन्हें बेटे को” शीर्षक कविता का सारांश लिखे |
विनोद कुमार शुक्ल समकालीन कवि हैं । विनोद कुमार शुक्ल की कविता
' प्यारे नन्हें बेटे को ' वार्तालाप शैली में लिखी गयी है । इस कविता में कवि कहता है लोहा कर्म का प्रतीक है । इसे हर वस्तु में तलाशना होगा । वह प्यारी बिटिया से पूछता है कि बताओ आस - पास कहाँ - कहाँ लोहा है । चिमटा , करकल , सिगड़ी, दरवाजे की साँकल , कब्जे में बिटिया बताती है । रुक - रुककर फिर याद कर बताती है लकड़ी के दो खम्भों पर वह एक सैफ्टी पिन , पूरी साइकिल में लोहा के प्रति आग्रह इतना क्यों ? कवि बताता है कि लोहा कर्म का प्रतीक है । वह जहाँ भी रहता है अपनी मजबूती के साथ रहता है । उसका शोषण कोई नहीं कर सकता । कवि पुत्री को याद दिलाता है कि फावड़ा , कुदाली , हँसिया , चाकू , खुरपी , बसुला सभी में लोहा है । कवि को पुत्री के अलावे भी याद दिलाती है कि बाल्टी , सामने कुएँ में लगी लोहे की घिरीं , छत्ते की डंडी में लोहा है । वह समाज के निम्न वर्ग के मजदूर को समाज का लोहा मानता है जिसके बल पर समाज मजबूती से खड़ा है परन्तु वह मजदूर शोषित है । 

जन-जन का चेहरा एक” शीर्षक कविता का सारांश लिखे |
गजानन माधव मुक्तिबोध द्वारा रचित कविता
जन-जन का चेहरा एकमें विश्व की विभिन्न जातियों एवं संस्कृतियों के बीच एकरूपता को दर्शाया है| कवि के अनुसार प्रत्येक महादेश, प्रदेश तथ नगर के लोगों में एक सी प्रवृति पायी जाती है| कवि ने इस कविता में पीड़ित संघर्षशील जन का चित्र उतारा गया है , जो अपने मानवोचित अधिकारों के लिए कार्यरत हैं - यह संघर्ष विश्व के सभी क्षेत्रों में फूट रहा है जो न्याय , शांति , बन्धुत्व पाना चाहता है । इस प्रकार यह संघर्षशील जनता एक ही है , एक सूत्र से पिरोयी गयी है । जन एक ही धरातल पर खड़ा है , उसकी सोच भी एक ही है , उसकी पीड़ाएँ भी समान हैं । इसी कारण जन - जन का चेहरा एक है , वह जन फिर कहीं का हो , जन प्रकृति एक है , धूप , कष्ट , दु : ख संताप एक है , चेहरे पर पड़ी झुर्रियों का रूप भी एक है और संघर्षशील मुट्ठियों का लक्ष्य भी एक ही है । यही नहीं यह एकता , एकरूपता बड़ी विलक्षण है । हर स्थान पर एक ही है- जनता का दल , उसका पक्ष भी एक ही है । यह लाल सितारा जो तुम देखते हो सर्वत्र एक ही है । समस्त नदियों की धारा भी समान ही है । शत्रु पक्ष एक , दुर्ग एक , सेनाएँ एक जन शोषक शत्रु भी एक ही है , सूर्य एक जो लाल - लाल किरणों से अन्धकार चीर देता है । विभिन्न प्रतीकों के माध्यम से जन - जन के चेहरे की एकता स्थापित की गयी है । सत्य का उजाला एक , सबकी वेदनाएँ समान , हिम्मत एक समान । इसके साथ भारत का अपना अस्तित्व अलग है मात्र कुछ मामलों में । यहाँ सभी ओर भाई हैं सभी ओर जन - जन का चेहरा एक बहनें हैं , सर्वत्र कन्हैया ने गायें चरायी हैं । उसकी बंसी की धुन सर्वत्र एक ही है , दानव दुरात्मा भी सर्वत्र एक ही है , फिर भी मानवात्मा एक ही है । यहाँ शोषक खूनी चोर एक से ही हैं । कवि ने साफ किया है , भौगोलिक सीमाएँ भी मानव की एकता को नहीं तोड़ पाती हैं । गम भी एक , खुशियाँ भी एक चाहे विश्व का कोई देश हो । इस प्रकार देश की सीमाएँ बदलाव नहीं ला सकती । सर्वत्र जन - जन का चेहरा एक ही है|

“बातचीत” शीर्षक पाठ का सारांश लिखे |
प्रस्तुत कहानी बातचीत के लेखक महान पत्रकार बालकृष्ण भट्ट है। बालकृष्ण भट्ट का आधुनिक हिंदी गद्य के निर्माताओं में नाम आता है। बालकृष्ण भट्ट जी बातचीत निबंध के माध्यम से मनुष्य की ईश्वर द्वारा दी गई अनमोल वस्तु वाकशक्ति का सही इस्तेमाल करने को बताते हैं। महान लेखक बताते हैं कि यदि मनुष्य में वाकशक्ति ना होती तो हम नहीं जानते कि इस गूंगी सृष्टि का क्या हाल होता। सब लोग मानो लुंज-पुंज अवस्था में एक कोने में बैठा दिए गए होते। लेखक बातचीत के विभिन्न तरीके भी बताते हैं। जैसे घरेलू बातचीत मन रमाने का ढंग है। वे बताते हैं कि जहां आदमी की अपनी जिंदगी मजेदार बनाने के लिए खाने-पीने चलने फिरने आदि की जरूरत है उसी प्रकार बातचीत की भी अत्यंत आवश्यकता है। हमारे मन में जो कुछ गंदगी या धुआ जमा रहता है वह बातचीत के जरिए भाप बनकर हमारे मन से बाहर निकल पड़ता है| इससे हमारा चित्त हल्का और स्वच्छ हो जाता है| हमारे जीवन में बातचीत का भी एक खास तरह का मजा होता है| यही नहीं भट्ट जी बताते हैं कि जब मनुष्य बोलता नहीं तब तक उसका गुण दोष प्रकट होता है| महान विद्वान वेन जॉनसन का कहना है कि बोलने से ही मनुष्य के रूप का सही साक्षात्कार हो पाता है| वे कहते हैं कि चार से अधिक की बातचीत तो केवल राम रामौवल कह लाएगी| यूरोप के लोग को  बातचीत का हुनर है जिसे आर्ट ऑफ कन्वर्सेशन कहते हैं| बालकृष्ण भट्ट उत्तम तरीका यह मानते हैं कि हम वह शक्ति पैदा करें कि अपने आप बात कर लिया करो|

“सम्पूर्ण क्रांति” शीर्षक पाठ का सारांश लिखे |

'सम्पूर्ण क्रांति ' शीर्षक अंश 5 जून 1974 के पटना के गाँधी मैदान में दिए गए जयप्रकाश नारायण के ऐतिहासिक भाषण का एक अंश है। सम्पूर्ण भाषण पुस्तिका के रूप में प्रकाशित है ।

अपने भाषण में जयप्रकाश नारायण ने युवाओं को संकेत देते हुए कहा है की हमें स्वराज्य तो मिला गया है लेकिन सुशासन के लिए हमें अभी काफी संघर्ष करने होंगें। भाषण के दौरान उन्हेंने नेहरूजी का उदाहरण दिया नेहरूजी कहते थे की सुशासन के लिए देश की जनता को अभी मीलों जाना है।

वह आगे कहते है कि मेरे भाषण में क्रान्ति के विचार होंगे जिन पर आपको अमल करना होगा। लाठियाँ खानी होंगी । यह सम्पूर्ण क्रान्ति है और वैसी ही जो हमारे भगतसिंह लाना चाहते थे । स्वराज्य से जनता कराह रही है , भूख , महँगाई और भ्रष्टाचार , रिश्वत , अन्याय , यही आज यहाँ फैला हुआ है । शिक्षा पाकर व्यक्ति ठोकर खाता फिर रहा है । यहाँ नारे तो लगते हैं पर गरीबी हटती नहीं , बढ़ती ही चली जाती है । भाषण में दिनकर जी की कविता और उनके निधन की चर्चा भी की जाती है । वे नयी जिम्मेदारी की चर्चा करते हैं , विद्यार्थियों का आह्वान करते हैं मात्र जयप्रकाश के नेतृत्व से काम नहीं चलेगा आपको अब अपना नेतृत्व सँभालना होगा । उन्होंने कहा भविष्य आपके हाथों में है । वहाँ उन्होंने यह भी घोषणा की कि मैं सबकी बात सुनूँगा पर फैसला मेरा ही होगा । यदि ऐसा नहीं हो सका तो आपस के झगड़े में बहसों में हम पता नहीं किधर बिखर जायेंगे ।

अपने भाषण के दौरान वे अपने छात्र जीवन के बारे में बताते है की आई . एससी . पास करने के बाद आगे की पढ़ाई के लिए हिन्दू विश्वविद्यालय के बावजूद अमेरिका मे पढ़ाई पूरी करनी पड़ी । कारण यह था कि हिन्दू विश्वविद्यालय अंग्रेजों के फंड से चलता था | अमेरिका मे पढ़ाई के दौरान वेटर का कम किया , बर्तन साफ किया , लोहे के कारखाने मे काम किया । इतने कठिनाइयों से अपनी पढ़ाई पूरी कि ।

जेपी आंदोलन के क्रम में जो सभा हुई थी उस सभा को विलाफ बनाने में कांग्रेस सरकार ने कौन-कौन से इथकंडे अपनाये इसकी भी चर्चा उन्हेंने अपने भाषण में की है। लोगों को ट्रनों से उतरा गया। लाठियां चलाई गई जेपी ने इसे लोकतंत्र पर कलंक माना। वे उनलोगों को लोकतंत्र का दुश्मन मानते है जो शांतिमय कार्यकर्मों में बाधा डालते है। वे इंदिराजी की चर्चा करते है। उनके अनुसार उनकी लड़ाई किसी व्यक्ति से नहीं बल्कि उनकी गलत नीतियों से उनके गलत सिद्धन्तों से है ,उनके गलत कार्यों से हैं। अपने ऐतिहासिक भाषण में उन्हेने स्पष्ट कर दिया था की वे सम्पूर्ण क्रांति चाहते है।

 

“एक लेख और एक पत्र” शीर्षक पाठ का सारांश लिखे

भगत सिंह महान क्रांतिकारी और स्वतंत्रता सेनानी और विचार थे| भगत सिंह विद्यार्थी और राजनीति के माध्यम से बताते हैं कि विद्यार्थी को पढ़ने के साथ साथ ही राजनीतिक में भी दिलचस्पी लेनी चाहिए| यदि कोई इसे मना कर रहा है तो समझाना चाहिए कि yahयह राजनीति के पीछे घोर षड्यंत्र है| क्योंकि विद्यार्थी युवा होते हैं| उन्हीं के हाथ में देश की बागडोर हैं| भगत सिंह व्यावहारिक राजनीति का उदाहरण देते हुए नौजवानों को समझाते हैं कि महात्मा गांधी, जवाहरलाल नेहरू और सुभाष चंद्र बोस का स्वागत करना और भाषण सुनना यह व्यावहारिक राजनीतिक नहीं तो क्या है| भगत सिंह मानते हैं कि हिंदुस्तान को इस समय ऐसे देश सेवक की जरूरत है जो देश पर अपनी जान न्योछावर कर दें और पागलों की तरह सारी उम्र देश की आजादी या उसके विकास में न्योछावर कर दे|  क्योंकि विद्यार्थी देश दुनिया की हर समस्या से परिचित होते हैं उनके पास अपना विवेक होता है| इस समस्याओं के समाधान में योगदान दे सकते है| अतः विद्यार्थियों को पॉलिटिक्स में भाग लेनी चाहिए|

 

“रोज” शीर्षक कहानी का सारांश लिखे |

रोज शीर्षक कहानी के रचियता आधुनिक हिंदी सहित के विद्वान श्री सच्चिदानंद हीरानंद  अज्ञेए  द्वारा लिखी गई है|  ‘रोजअज्ञेयजी की बहुचर्चित कहानी है और इस कहानी में  मध्यवर्ग भारीतय समाज में घरेलू स्त्री के जीवन और मनोदशा पर सहानभूति पूर्वक विचार किया है | घरेलू स्त्री के जीवन काम के अलावा कुछ रह जाता वह अपना सारा समय घर के कामों में निकाल देती है|

कहानी आत्मकथ्य शैली में है और इसके प्रमुख पात्र लेखक और उसकी बहन मालती है। कहानी की शुरुआत अचानक से होती है। दोपहर को उस आँगन में पैर रखते ही मुझे ऐसा जान पड़ा , मानो उस पर किसी शाप की छाया मँडरा रही है , उनकी आहट सुनकर मालती बाहर आई । अन्दर पहुँचकर लेखक ने पूछा - " वे यहाँ नहीं हैं ? " उत्तर मिला अभी दफ्तर से नहीं आये हैं । मालती पंखा उठा लायी और ऊपर झूलाने लगी । यह कहानी विचित्र ढंग से प्रारम्भ होती है , मालती अतिथि से हालचाल भी नहीं पूछती । उसके व्यवहार में कर्त्तव्यपालन का भाव कुछ अधिक ही है । बचपन की बाबली , चंचल लड़की शादी के बाद इतनी बदल जाती है कि चुप्पी उसके चेहरे पर छा जाती है । उसका व्यक्तित्व भी बुझ - सा गया है । अतिथि का आगमन वहाँ कोई उल्लास का कारण नहीं है और अतिथि को भी वहाँ कोई छाया मैंडराती - सी दिखायी देती है । मौन छाये वातावरण को मालती का बच्चा भंग करता है । मालती उसको सँभालने चली जाती है । मालती लेखक की दूर के रिश्ते की बहिन थी । वह उसके साथ सखी रूप में रही थी उनका सम्बन्ध ही ऐसा था । साथ खेलती , लड़ती , पिटते और पढ़ते भी साथ ही थे । लेखक चार वर्ष बाद उससे मिलने आया था । बच्चे का नाम लेखक ने पूछा तो पता चला नाम कोई रखा नहीं , पर हम टिटी कहते हैं । लेखक को यह भी अखरता है कि मालती ने कोई बात नहीं की । कैसा हूँ यह भी नहीं पूछा ? लेखक ने एक बार प्रश्न किया,  "तुम्हें मेरे आने से विशेष प्रसन्नता नहीं हुई?" वह मात्र चौंक कर हूँ कहकर शान्त हो गयी । मालती का अन्तर्द्वन्द्व , मानसिक स्थिति , बीते बचपन की स्मृतियाँ भटक गर्दी और संज्ञाहीनता की स्थिति मौजूद थी । थकान , सब्जी का अभाव , पानी समय पर नहीं आता यह भी परेशानी है , उसका भी चित्रण है , नौकर भी नहीं मिलता । मालती के पति दोपहर के तीन बजे और रात्रि के दस बजे भोजन करते हैं । मालती का जीवन रोज एक - सा ही है । पति का अधिकांश समय डिस्पेन्सरी में बीतता है या सोने में । यहाँ मालती की आन्तरिकता को भली प्रकार उभारा गया है , जिसमें लेखक को सफलता भी मिली है । 

उसके पति का आगमन होता है । लेखक ने उनको पहली बार देखा था । दोनों का परिचय हुआ उनका नाम था महेश्वर । वे एक सरकारी अस्पताल में चिकित्सक थे । उनकी अस्पताल की जिन्दगी की भी चर्चा है । उनकी रूटीन पर ही दोनों में वार्तालाप होता रहा । खाना आ गया । लेखक ने मालती से पूछा तुम नहीं खाओगी , उत्तर महेश्वर ने दिया , वह पीछे खाया करती है । महेश्वर और अतिथि बाहर पलंग पर बैठकर अनौपचारिक वार्तालाप करते रहे । मालती बर्तन माँजती है , बच्चा बार - बार पलंग से गिर जाता है । मालती तीखी प्रतिक्रिया दिखाती है , यह आभास होता है कि वह यह बताना चाहती है कि वह बर्तन माँजे या बच्चा सँभाले , यह कहानी नारी की विषम स्थिति पर गहरी छाया डालती है । कहानी का अन्त भी करुण है। ग्यारह का घण्टा बजता है , मालती कहती है ग्यारह बज गए । यह उसकी गहरी निराशा का भाव है , रोज ही यह होता है । 

एक घटना और भी महत्वपूर्ण है । महेश्वर कुछ आम लाये थे जो अखबार में लिपटे थे । महेश्वर उन्हें धोने को कहते हैं । मालती उस अखबार के टुकड़े को पढ़ती है , यह बताता है कि मालती की जिन्दगी एक दायरे में सिमट गयी है वह अखबार भी नहीं पढ़ सकती यहाँ यह भी तड़प व्यंजित है कि वह बाहरी दुनियादारी से मिलना चाहती है ।

 

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